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गीता प्रेस, गोरखपुर >> मार्कण्डेय पुराण

मार्कण्डेय पुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1196
आईएसबीएन :81-293-0153-9

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अठारह पुराणों की गणना में सातवाँ स्थान है मार्कण्डेयपुराण का...

भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल

 

मार्कण्डेयजी कहते हैं-ब्रह्मन् ! इसके पश्चात् अब तुम भौत्य मनुकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग सुनो तथा उस समय होनेवाले देवर्षियों और पृथ्वीका पालन करनेवाले मनु-पुत्रों आदिके नाम भी श्रवण करो। अङ्गिरा मुनिके एक शिष्य थे, जिनका नाम भूति था। वे बड़े ही क्रोधी तथा छोटी-सी बातके लिये अपराध होनेपर प्रचण्ड शाप देनेवाले थे। उनकी बातें कठोर होती थीं। उनके आश्रमपर हवा बहुत तेज नहीं बहती थी। सूर्य अधिक गर्मी नहीं पहुँचाते थे और मेघ अधिक कीचड़ नहीं होने देते थे। उन अत्यन्त तेजस्वी क्रोधी महर्षिके भयसे चन्द्रमा अपनी समस्त किरणोंसे परिपूर्ण होनेपर भी अधिक सर्दी नहीं पहुँचाते थे। समस्त ऋतुएँ उनकी आज्ञासे अपने आनेका क्रम छोड़कर आश्रमके वृक्षोंपर सदा ही रहतीं और मुनिके लिये फल-फूल प्रस्तुत करती थीं। महात्मा भूतिके भयसे जल भी उनके आश्रमके समीप मौजूद रहता और उनके कमण्डलुमें भी भरा रहता था।

भूति मुनिके एक भाई थे, जो सुवर्चाके नामसे विख्यात थे। उन्होंने यज्ञमें भूतिको निमन्त्रित किया। वहाँ जानेकी इच्छासे भूतिने अपने परम बुद्धिमान्, शान्त, जितेन्द्रिय, विनीत, गुरुके कार्यमें सदा संलग्न रहनेवाले, सदाचारी और उदार शिष्य मुनिवर शान्तिसे कहा-'वत्स! मैं अपने भाई सुवर्चाके यज्ञमें जाऊँगा। उन्होंने मुझे बुलाया है। तुम्हें यहीं आश्रमपर रहना है। यहाँ तुम्हारे लिये जो कर्तव्य है, सुनो। मेरे आश्रमपर तुम्हें प्रतिदिन अग्नि को प्रज्वलित रखना होगा और सदा ऐसा प्रयत्न करना होगा, जिससे अग्नि बुझने न पाये।' गुरुकी यह आज्ञा पाकर जब शान्ति नामक शिष्यने 'बहुत अच्छा' कहकर इसे स्वीकार किया, तब अपने छोटे भाईके बुलानेपर भूति मुनि उनके यज्ञमें चले गये। इधर शान्ति गुरुभक्तिके वशमें होकर उन महात्मा गुरुकी सेवाके लिये जबतक समिधा, फूल और फल आदि जुटाते रहे तथा अन्य आवश्यक कार्य करते रहे, तबतक भूति मुनिके द्वारा सञ्चित अग्नि शान्त हो गयी। अग्निको शान्त हुआ देख शान्तिको बड़ा दुःख हुआ और वे भूतिके भयसे बहुत चिन्तित हुए। उन्होंने सोचा, 'यदि इस अग्निके स्थानमें मैं दूसरी अग्नि स्थापित करूँ तो सब कुछ प्रत्यक्ष देखनेवाले मेरे गुरु अवश्य ही मुझे भस्म कर डालेंगे, मैं पापी अपने गुरुके क्रोध और शापका कारण बनूँगा। मुझे अपने लिये उतना शोक नहीं है, जितना कि गुरुके अपराध करनेका शोक है। अग्नि शान्त हुई देख गुरुदेव मुझे निश्चय ही शाप दे देंगे। जिनके प्रभावसे डरकर देवता भी उनके शासनमें रहते हैं, वे मुझ अपराधीको शापसे दग्ध न करें, इसके लिये क्या उपाय हो सकता है?' अपने गुरुके डरसे डरे हुए बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ शान्ति मुनिने इस तरह अनेक प्रकारसे सोच-विचार करके अग्निदेवकी शरण ली। उसने मनपर संयम किया और पृथ्वीपर घुटने टेक हाथ जोड़ एकाग्रचित्त हो स्तोत्र आरम्भ किया। शान्तिने कहा-समस्त प्राणियोंके साधक महात्मा अग्निदेवको नमस्कार है। उनके एक, दो और पाँच स्थान हैं। वे राजसूय यज्ञमें छः स्वरूप धारण करते हैं। समस्त देवताओंको वृत्ति देनेवाले अत्यन्त तेजस्वी अग्निदेवको नमस्कार है। जो सम्पूर्ण जगत् के कारणरूप तथा पालन करनेवाले हैं, उन अग्निदेवको प्रणाम है। अग्ने! तुम सम्पूर्ण देवताओंके मुख हो। भगवन्! तुम्हारे द्वारा ग्रहण किया हुआ हविष्य सब देवताओंको तृप्त करता है। तुम्हीं समस्त देवताओंके प्राण हो। तुममें हवन किया हुआ हविष्य अत्यन्त पवित्र होता है, फिर वही मेघ बनकर जलरूपमें परिणत हो जाता है। फिर उस जलसे सब प्रकारके अन्न आदि उत्पन्न होते हैं। अनिलसारथे! फिर उन समस्त अन्न आदिसे सब जीव सुखपूर्वक जीवन धारण करते हैं। अग्निदेव! तुम्हारे द्वारा उत्पन्न की हुई ओषधियोंसे मनुष्य यज्ञ करते हैं। यज्ञोंसे देवता, दैत्य तथा राक्षस तृप्त होते हैं। हुताशन! उन यज्ञोंके आधार तुम्ही हो, अतः अग्ने! तुम्हीं सबके आदिकारण और सर्वस्वरूप हो। देवता, दानव, यक्ष, दैत्य, गन्धर्व, राक्षस, मनुष्य, पशु वृक्ष, मृग, पक्षी तथा सर्प-ये सभी तुमसे ही तृप्त होते और तुम्हींसे वृद्धिको प्राप्त होते हैं। तुम्हींसे इनकी उत्पत्ति है और तुम्हींमें इनका लय होता है। देव! तुम्हीं जलकी सृष्टि करते और तुम्हीं उसको पुनः सोख लेते हो। तुम्हारे पकानेसे ही जल प्राणियोंकी पुष्टि करता है। तुम देवताओंमें तेज, सिद्धोंमें कान्ति, नागोंमें विष और पक्षियोंमें वायुरूपसे स्थित हो। मनुष्योंमें क्रोध, पक्षी और मृग आदिमें मोह, वृक्षोंमें स्थिरता, पृथ्वीमें कठोरता, जलमें द्रवत्व तथा वायुमें जलरूपसे तुम्हारी स्थिति है। अग्ने! व्यापक होनेके कारण तुम आकाशमें आत्मारूपसे स्थित हो। अग्निदेव! तुम सम्पूर्ण भूतोंके अन्तःकरणमें विचरते तथा सबका पालन करते हो। विद्वान् पुरुष तुमको एक कहते हैं, तथा फिर वे ही तुम्हें तीन प्रकारका बतलाते हैं। तुम्हें आठ रूपोंमें कल्पित करके ऋषियोंने आदियज्ञका अनुष्ठान किया था। महर्षिगण इस विश्वको तुम्हारी सृष्टि बतलाते हैं। हुताशन! तुम्हारे बिना यह सम्पूर्ण जगत् तत्काल नष्ट हो जायगा। ब्राह्मण हव्य-कव्य आदिके द्वारा 'स्वाहा और 'स्वधा'का उच्चारण करते हुए तुम्हारी पूजा करके अपने कर्मोंके अनुसार विहित उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं। देवपूजित अग्निदेव! प्राणियोंके परिणाम, आत्मा और वीर्यस्वरूप तुम्हारी ज्वालाएँ तुमसे ही निकलकर सब भूतोंका दाह करती हैं। परम कान्तिमान् अग्निदेव! संसारकी यह सृष्टि तुमने ही की है। तुम्हारा ही यज्ञरूप वैदिक कर्म सर्वभूतमय जगत् है। पीले नेत्रोंवाले अग्निदेव! तुम्हें नमस्कार है। हुताशन! तुम्हें नमस्कार है। पावक! आज तुम्हें नमस्कार है। हव्यवाहन! तुम्हें नमस्कार है। तुम ही खाये-पीये हुए पदार्थोंको पचानेके कारण विश्वके पालक हो। तुम्हीं खेतीको पकानेवाले और जगत् के पोषक हो। तुम्हीं मेघ हो, तुम्हीं वायु हो और तुम्हीं समस्त प्राणियोंका पोषण करनेके लिये खेतीके हेतुभूत बीज हो। भूत, भविष्य और वर्तमान-सब तुम्हीं हो। तुम्हीं सब जीवोंके भीतर प्रकाश हो। तुम्हीं सूर्य और तुम्हीं अग्नि हो। अग्ने! दिन-रात तथा दोनों सन्ध्याएँ तुम्ही हो। सुवर्ण तुम्हारा वीर्य है। तुम सुवर्णकी उत्पत्तिके कारण हो। तुम्हारे गर्भमें सुवर्णकी स्थिति है। सुवर्णके समान तुम्हारी कान्ति है। मुहूर्त, क्षण, त्रुटि और लव-सब तुम्हीं हो। जगत्प्रभो! कला, काष्ठा और निमेष आदि तुम्हारे ही रूप हैं। यह सम्पूर्ण दृश्य तुम्हीं हो। परिवर्तनशील काल भी तुम्हारा ही स्वरूप है। प्रभो! तुम्हारी जो काली नामकी जिह्वा है, वह कालको आश्रय देनेवाली है। उसके द्वारा तुम पापोंके भयसे हमें बचाओ तथा इस लोकके महान् भयसे हमारी रक्षा करो। तुम्हारी जो कराली नामकी जिह्वा है, वह महाप्रलयकी कारणरूपा है। उसके द्वारा हमें पापों तथा इहलोकके महान् भयसे बचाओ। तुम्हारी जो मनोजवा नामकी जिह्वा है, वह लघिमा नामक गुणस्वरूपा है। उसके द्वारा तुम पापों तथा इस लोकके महान् भयसे हमारी रक्षा करो। तुम्हारी जो सुलोहिता नामकी जिह्वा है, वह सम्पूर्ण भूतोंकी कामनाएँ पूर्ण करती है। उसके द्वारा तुम पापों तथा इस लोकके महान् भयसे हमारी रक्षा करो। तुम्हारी जो सुधूम्रवर्णा नामकी जिह्वा है, वह प्राणियोंके रोगोंका दाह करनेवाली है। उसके द्वारा तुम पापों तथा इस लोकके महान् भयसे हमारी रक्षा करो। तुम्हारी जो स्फुलिङ्गिनी नामक जिह्वा है जिससे सम्पूर्ण जीवोंके शरीर उत्पन्न हुए हैं, उसके द्वारा तुम पापों तथा इस लोकके महान् भयसे हमारी रक्षा करो। तुम्हारी जो विश्वा नामकी जिह्वा है, वह समस्त प्राणियोंका कल्याण करनेवाली है। उसके द्वारा तुम पापों तथा इस लोकके महान् भयसे हमारी रक्षा करो। हुताशन! तुम्हारे नेत्र पीले, ग्रीवा लाल और रंग साँवला है। तुम सब दोषोंसे हमारी रक्षा करो और संसारसे हमारा उद्धार कर दो। वह्नि, सप्तार्चि, कृशानु, हव्यवाहन, अग्नि, पावक, शुक्र तथा हुताशन-इन आठ नामोंसे पुकारे जानेवाले अग्निदेव! तुम प्रसन्न हो जाओ। तुम अक्षय, अचिन्त्य समृद्धिमान्, दुःसह एवं अत्यन्त तीव्र वह्नि हो। तुम मूर्तरूपमें प्रकट होकर अविनाशी कहे जानेवाले सम्पूर्ण भयंकर लोकोंको भस्म कर डालते हो अथवा तुम अत्यन्त पराक्रमी हो- तुम्हारे पराक्रमकी कहीं सीमा नहीं है। हुताशन ! तुम सम्पूर्ण जीवोंके हृदय-कमलमें स्थित उत्तम, अनन्त एवं स्तवन करने योग्य सत्त्व हो। तुमने इस सम्पूर्ण चराचर विश्वको व्याप्त कर रखा है। तुम एक होकर भी यहाँ अनेक रूपोंमें प्रकट हुए हो। पावक! तुम अक्षय हो, तुम्हीं पर्वतों और वनोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वी, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य तथा दिन- रात हो। महासागरके उदरमें बड़वानलके रूपमें तुम्ही हो तथा तुम्हीं अपनी परा विभूतिके साथ सूर्यकी किरणोंमें स्थित हो। भगवन्! तुम हवन किये हुए हविष्यका साक्षात् भोजन करते हो, इसलिये बड़े-बड़े यज्ञोंमें नियमपरायण महर्षिगण सदा तुम्हारी पूजा करते हैं। तुम यज्ञमें स्तुत होकर सोमपान करते हो तथा वषट्का उच्चारण करके इन्द्रके उद्देश्यसे दिये हुए हविष्यको भी तुम्हीं भोग लगाते हो और इस प्रकार पूजित होकर तुम सम्पूर्ण विश्वका कल्याण करते हो। विप्रगण अभीष्ट फलकी प्राप्तिके लिये सदा तुम्हारा ही यजन करते हैं। सम्पूर्ण वेदाङ्गोंमें तुम्हारी महिमाका गान किया जाता है। यज्ञपरायण श्रेष्ठ ब्राह्मण तुम्हारी ही प्रसन्नताके लिये सर्वदा अङ्गोंसहित वेदोंका पठन-पाठन करते रहते हैं। तुम्हीं यज्ञपरायण ब्रह्मा, सब भूतोंके स्वामी भगवान् विष्णु, देवराज इन्द्र, अर्यमा, जलके स्वामी वरुण, सूर्य तथा चन्द्रमा हो। सम्पूर्ण देवता और असुर भी तुम्हींको हविष्योंद्वारा संतुष्ट करके मनोवाञ्छित फल प्राप्त करते हैं। कितने ही महान् दोषसे दूषित वस्तु क्यों न हो, वह सब तुम्हारी ज्वालाओंके स्पर्शसे शुद्ध हो जाती है। सब स्नानोंमें तुम्हारे भस्मसे किया हुआ स्नान ही सबसे बढ़कर है, इसीलिये मुनिगण सन्ध्याकालमें उसका विशेष रूपसे सेवन करते हैं। शुचि नामवाले अग्निदेव! मुझपर प्रसन्न होओ। वायुरूप! मुझपर प्रसन्न होओ। अत्यन्त निर्मल कान्तिवाले पावक! मुझपर प्रसन्न होओ। विद्युन्मय! आज मुझपर प्रसन्न होओ। हविष्यभोजी अग्निदेव! तुम मेरी रक्षा करो। वह्ने ! तुम्हारा जो कल्याणमय स्वरूप है, देव! तुम्हारी जो सात ज्वालामयी जिह्वाएँ हैं, उन सबके द्वारा तुम मेरी रक्षा करो-ठीक उसी तरह, जैसे पिता अपने पुत्रकी रक्षा करता है। मैंने तुम्हारी स्तुति की है।

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    अनुक्रम

  1. वपु को दुर्वासा का श्राप
  2. सुकृष मुनि के पुत्रों के पक्षी की योनि में जन्म लेने का कारण
  3. धर्मपक्षी द्वारा जैमिनि के प्रश्नों का उत्तर
  4. राजा हरिश्चन्द्र का चरित्र
  5. पिता-पुत्र-संवादका आरम्भ, जीवकी मृत्यु तथा नरक-गति का वर्णन
  6. जीवके जन्म का वृत्तान्त तथा महारौरव आदि नरकों का वर्णन
  7. जनक-यमदूत-संवाद, भिन्न-भिन्न पापों से विभिन्न नरकों की प्राप्ति का वर्णन
  8. पापोंके अनुसार भिन्न-भिन्न योनियोंकी प्राप्ति तथा विपश्चित् के पुण्यदान से पापियों का उद्धार
  9. दत्तात्रेयजी के जन्म-प्रसङ्ग में एक पतिव्रता ब्राह्मणी तथा अनसूया जी का चरित्र
  10. दत्तात्रेयजी के जन्म और प्रभाव की कथा
  11. अलर्कोपाख्यान का आरम्भ - नागकुमारों के द्वारा ऋतध्वज के पूर्ववृत्तान्त का वर्णन
  12. पातालकेतु का वध और मदालसा के साथ ऋतध्वज का विवाह
  13. तालकेतु के कपट से मरी हुई मदालसा की नागराज के फण से उत्पत्ति और ऋतध्वज का पाताललोक गमन
  14. ऋतध्वज को मदालसा की प्राप्ति, बाल्यकाल में अपने पुत्रों को मदालसा का उपदेश
  15. मदालसा का अलर्क को राजनीति का उपदेश
  16. मदालसा के द्वारा वर्णाश्रमधर्म एवं गृहस्थ के कर्तव्य का वर्णन
  17. श्राद्ध-कर्म का वर्णन
  18. श्राद्ध में विहित और निषिद्ध वस्तु का वर्णन तथा गृहस्थोचित सदाचार का निरूपण
  19. त्याज्य-ग्राह्य, द्रव्यशुद्धि, अशौच-निर्णय तथा कर्तव्याकर्तव्य का वर्णन
  20. सुबाहु की प्रेरणासे काशिराज का अलर्क पर आक्रमण, अलर्क का दत्तात्रेयजी की शरण में जाना और उनसे योग का उपदेश लेना
  21. योगके विघ्न, उनसे बचनेके उपाय, सात धारणा, आठ ऐश्वर्य तथा योगीकी मुक्ति
  22. योगचर्या, प्रणवकी महिमा तथा अरिष्टोंका वर्णन और उनसे सावधान होना
  23. अलर्क की मुक्ति एवं पिता-पुत्र के संवाद का उपसंहार
  24. मार्कण्डेय-क्रौष्टुकि-संवाद का आरम्भ, प्राकृत सर्ग का वर्णन
  25. एक ही परमात्माके त्रिविध रूप, ब्रह्माजीकी आयु आदिका मान तथा सृष्टिका संक्षिप्त वर्णन
  26. प्रजा की सृष्टि, निवास-स्थान, जीविका के उपाय और वर्णाश्रम-धर्म के पालन का माहात्म्य
  27. स्वायम्भुव मनुकी वंश-परम्परा तथा अलक्ष्मी-पुत्र दुःसह के स्थान आदि का वर्णन
  28. दुःसह की सन्तानों द्वारा होनेवाले विघ्न और उनकी शान्ति के उपाय
  29. जम्बूद्वीप और उसके पर्वतोंका वर्णन
  30. श्रीगङ्गाजीकी उत्पत्ति, किम्पुरुष आदि वर्षोंकी विशेषता तथा भारतवर्षके विभाग, नदी, पर्वत और जनपदोंका वर्णन
  31. भारतवर्ष में भगवान् कूर्म की स्थिति का वर्णन
  32. भद्राश्व आदि वर्षोंका संक्षिप्त वर्णन
  33. स्वरोचिष् तथा स्वारोचिष मनुके जन्म एवं चरित्रका वर्णन
  34. पद्मिनी विद्याके अधीन रहनेवाली आठ निधियोंका वर्णन
  35. राजा उत्तम का चरित्र तथा औत्तम मन्वन्तर का वर्णन
  36. तामस मनुकी उत्पत्ति तथा मन्वन्तरका वर्णन
  37. रैवत मनुकी उत्पत्ति और उनके मन्वन्तरका वर्णन
  38. चाक्षुष मनु की उत्पत्ति और उनके मन्वन्तर का वर्णन
  39. वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय
  40. सावर्णि मनुकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें देवी-माहात्म्य
  41. मेधा ऋषिका राजा सुरथ और समाधिको भगवतीकी महिमा बताते हुए मधु-कैटभ-वधका प्रसङ्ग सुनाना
  42. देवताओं के तेज से देवी का प्रादुर्भाव और महिषासुर की सेना का वध
  43. सेनापतियों सहित महिषासुर का वध
  44. इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवी की स्तुति
  45. देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिका के रूप की प्रशंसा सुनकर शुम्भ का उनके पास दूत भेजना और दूत का निराश लौटना
  46. धूम्रलोचन-वध
  47. चण्ड और मुण्ड का वध
  48. रक्तबीज-वध
  49. निशुम्भ-वध
  50. शुम्भ-वध
  51. देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान
  52. देवी-चरित्रों के पाठ का माहात्म्य
  53. सुरथ और वैश्यको देवीका वरदान
  54. नवें से लेकर तेरहवें मन्वन्तर तक का संक्षिप्त वर्णन
  55. रौच्य मनु की उत्पत्ति-कथा
  56. भौत्य मन्वन्तर की कथा तथा चौदह मन्वन्तरों के श्रवण का फल
  57. सूर्यका तत्त्व, वेदोंका प्राकट्य, ब्रह्माजीद्वारा सूर्यदेवकी स्तुति और सृष्टि-रचनाका आरम्भ
  58. अदितिके गर्भसे भगवान् सूर्यका अवतार
  59. सूर्यकी महिमाके प्रसङ्गमें राजा राज्यवर्धनकी कथा
  60. दिष्टपुत्र नाभागका चरित्र
  61. वत्सप्रीके द्वारा कुजृम्भका वध तथा उसका मुदावतीके साथ विवाह
  62. राजा खनित्रकी कथा
  63. क्षुप, विविंश, खनीनेत्र, करन्धम, अवीक्षित तथा मरुत्तके चरित्र
  64. राजा नरिष्यन्त और दम का चरित्र
  65. श्रीमार्कण्डेयपुराणका उपसंहार और माहात्म्य

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